हमारा घर ही सबसे बड़ा मंदिर है
हेलो दोस्तों। ....
लोग पुण्य कमाने के लिए तीरथ करते हैं, देवताओं को पूजने मंदिर जाते हैं, लेकिन घर में मौजूद जीते-जागते देवताओं को नज़रअंदाज़ करते हैं। यहां तक कि तिरस्कार भी करते हैं। शास्त्रों में कहा है, मातृ देवो भव: पितृ देवो भव:! अर्थात माता-पिता देवतुल्य हैं। जिस प्रकार परमात्मा हर तरह से हमारी देखभाल करते हैं, उसी तरह माता-पिता भी अपने बच्चों की जान से बढ़ कर हिफाज़त करते हैं। उनके लाड-प्यार में कोई कमी नहीं रखते। श्री राम प्रात: उठते ही प्रथम वंदन माता-पिता को करते थे। रामचरितमानस में गोस्वामी जी उसका वर्णन करते हैं : प्रात:काल उठि रघुराई। प्रथम मात पितु शीश नवाई।। यह परंपरा आज भी सभ्य घरानों में कायम है। महाभारत में प्रसंग है कि जब यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न पूछा कि पृथ्वी से भारी क्या है? तो युधिष्ठिर ने यही बताया कि पृथ्वी से भारी मां होती है। यह उत्तर सही था, अन्यथा उन पर भी यक्ष का शाप पड़ता। सचमुच मां अपने बच्चों को जितना प्रेमी देती है, उनका जितना हित चाहती है, उतना अन्य कोई नहीं कर सकता। शास्त्रों में मां को सर्वतीर्थमयी बताया गया है, क्योंकि सारे तीर्थ घूमने का फल मात्र मां की सेवा-वंदना करने से मिल जाता है। गणेश और कार्तिकेय में जब श्रेष्ठता की होड़ लगी तो गणेश ने माता-पिता की परिक्रमा करके ही त्रिभुवन की परिक्रमा का यश पाया। जिनके मां-बाप जीवित नहीं होते, उनके यहां उनकी तस्वीर होती है। अनेक लोग अपने दैनिक कामकाज की शुरुआत करने के पहले रोज़ प्रात: उनको नमन करते हैं। इससे आने वाली पीढ़ी यानी उनके बच्चे भी सीखते हैं कि माता-पिता वंदनीय हैं। घर के मंदिर में भाई-बहनों के बीच जो आपसी प्रेम और ममता देखने को मिलती है, उसी की महानता देख कर परमात्मा की वंदना के लिए यह सूत्र गढ़ा गया है : त्वमेव बंधुश्चसखा त्वमेव! इस तरह भाई-बहन भी एक-दूसरे के लिए देवतुल्य होते हैं। उनमें कोई भेदभाव और वैमनस्य नहीं होना चाहिए, तभी तो घर मंदिर का वातावरण पवित्र और सुखदायी होगा। हमारे धर्मग्रंथों में धन और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी को बताया गया है। और घर की नारी को गृह लक्ष्मी कहा गया है, क्योंकि परिवार का सारा दारोमदार उसी के कंधों पर होता है। यदि गृहलक्ष्मी खुश है तभी घर रूपी मंदिर के शेष देवी-देवता खुश रह सकते हैं। किसी घर में यदि बहू या पत्नी का ही आदर नहीं हो, तो वह घर मंदिर कैसे बनेगा? हमारे शास्त्रों की यह पंक्ति बहुत चर्चित है कि यत्र नार्यस्तु न पूज्यंते, रमंते तत्र न देवता:। यह पद सिर्फ देश या समाज के ही लिए नहीं, घर की चारदीवारी या परिवार के लिए भी है। जब घर की नारी (दादी हो, मां हो, बहन या बेटी हो, बहू या बुआ या मामी-चाची हों) का ही आदर नहीं होगा, तो वहां चाहे जितनी पूजा-पाठ हो, वहां का माहौल अच्छा (देवताओं के रहने योग्य) नहीं हो सकता। नवरात्रों में कन्या या कंजक जिमाने से क्या होगा यदि घर में बेटियां और बहनें दोयम दर्जे की समझी जाती हैं। आगे लिखा है- अतिथि देवो भव! माता-पिता के बाद अतिथि को देव स्वरूप कहा गया है। घर में कोई मेहमान आता है, तो कितनी खुशी होती है। उसकी आवभगत के लिए सभी सदस्य जुट जाते हैं। आज ग्लोबलाइज़ेशन के युग में ये बातें धूमिल हो रही हैं और घर को मात्र चारदीवारी ही समझ लिया गया है। उन दीवारों को हम खूब सजाते हैं, सोफा-पलंग बिछाते हैं, लेकिन वहां मंदिर का वातावरण नहीं बनाते। घर तो वास्तव में मंदिर से भी बढ़कर है, तीर्थ से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि वहां जीते-जागते देवता विराजमान होते हैं। यदि इस बात को समझ लेते हैं तो घर में ही स्वर्ग का साम्राज्य स्थापित कर सकते हैं, जो कि आज के युग में नरक बनता जा रहा है।
धन्यवाद....
आपका अपना
अजय पाण्डेय
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