एक दूसरे की गलतियों को स्वीकार करों…
ये उन दिनों की बात हे जब में छोटा था ओर माँ हमारे लिए खाना पकाती थी।
एक शाम माँ ने दिनभर की लम्बी थकान एवं काम के बाद जब डीनर बनाया तो उन्होंने पापा के सामने एक प्लेट सब्जी और एक जली हुई रोटी परोसी। मूझे लग रहा था कि इस जली हुई रोटी पर कोई कुछ कहेगा।
परन्तु पापा ने उस रोटी को आराम से खा लिया और मुझ से पूछा कि आज स्कूल में मेरा दिन कैसा रहा? मूझे नहीं याद मैंने क्या जवाब दिया था, परन्तु मैंने माँ को पापा से उस जली रोटी के लिए “सोरी” बोलते हुए जरूर सुना था।
और मैं ये कभी नहीं भूल सकता जो पापा ने कहा: “प्रिये, मूझे जली हुई कड़क रोटी बेहद पसंद हे।”
देर रात को मैने पापा से गुडनाईट बोलते हुए प्यार किया और पुछा, क्या उन्हें सचमुच जली रोटी पसंद हे?
उन्होंने मुझे अपनी बाहों में लेते हुए कहा – तुम्हारी माँ ने आज दिनभर ढ़ेर सारा काम किया, ओर वो सचमुच बहुत थकी हुई थी। ओर…वेसे भी…एक जली रोटी किसी को ठेस नहीं पहुंचाती परन्तु कठोर-कटू शब्द जरूर पहुंचाते हैं।
तुम्हें पता हे बेटा – जिंदगी भरी पड़ी हे अपूर्ण चीजों से…अपूर्ण लोगों से… कमियों से…दोषों से…मैं स्वयं सर्वश्रेष्ठ नहीं, साधारण हूँ ओर शायद ही किसी काम में ठीक हूँ। में भी दुसरों की तरह जन्मदिन, सालगिरह भूल जाता हूँ।
मैंने इतने सालों में सीखा हे कि-
“एक दूसरे की गलतियों को स्वीकार करों…अनदेखी करों… ओर चुनो… पसंद करो…आपसी संबंधों को सेलिब्रेट करना।”
मित्रों, जिदंगी बहुत छोटी हे…उसे हर सुबह दु:ख…पछतावे…खेद के साथ जागते हुए बर्बाद न करें। जो लोग तुमसे अच्छा व्यवहार करते हैं, उन्हें प्यार करों ओर जो नहीं करते उनके लिए दया… सहानुभूति…रखो।
किसी ने क्या खूब कहा है-
“मेरे पास वक्त नहीं उन लोगों से नफरत करने का जो मुझे पसंद नहीं करते, क्योंकि मैं व्यस्त हूँ उन लोगों को प्यार करने में जो मूझे पसंद करते हैं।”
अरे यारों, जिदंगी का आनंद लिजिये…उसका लुत्फ़ उठाइए…
उसकी समाप्ति…उसका अंत निश्चित है…
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