सुदामा की कथा
सुदामा एक अत्यंत दीन ब्राह्मण थे । बालकपन में उसी गुरु के पास विद्याध्ययन करने गये थे जहां भगवान श्रीकृष्ण चंद्र अपने जेठे भाई बलराम जी के साथ शिक्षा ग्रहण करने के लिए गये थे । वहां श्रीकृष्ण चंद्र के साथ इनका खूब संग रहा । इन्होंने गुरुजी की बड़ी सेवा की । गुरुपत्नी की आज्ञा से एक बार सुदामा कृष्णचंद्र के साथ जंगल से लकड़ी लाने गये । जंगल में जाना था कि आंधी - पानी आ गया । अंधकार इतना सघन छा गया कि अपना हाथ अपनी आंखों नहीं दिखता था । रातभर ये लोग उस अंधेरी रात में वन - वन भटकते रहे परंतु रास्ता मिला ही नहीं । प्रात:काल सहृदय सांदीपनि गुरु इन्हें खोजते जंगल में आये और घर ले गये ।
गुरुगृह से आने पर सुदामा ने एक सती ब्राह्मण कन्या से विवाह किया । सुदामा की पत्नी थी बड़ी पतिव्रता अनुपम साध्वी । उसे किसी बात का कष्ट न था, चिंता न थी, यदि थी तो केवल अपने पतिदेव की दरिद्रता की । वह जानती थी भगवान श्रीकृष्ण उसके पति के प्राचीन सखा हैं - गुरुकुल के सहाध्यायी हैं । वह सुदामा डी को इसकी समय - समय पर चेतावनी भी दिया करती थी, परंतु सुदामा जी इसे तनिक भी कान नहीं करते - कभी ध्यान नहीं देते थे । एक बार उस पतिव्रता ने सुदामा जी से मिलिए, उन्हें अपना दु:ख सुनाइये । भगवान दयासागर हैं, हमारा दु:ख अवस्य दूर करेंगे । जरा हमारी इस दीन हीन दशा की खबर अपने प्यारे सखा कृष्ण को तो देना - ‘या घरते न गयो कबहूं पिय टूटो तवा अरु फूटी कठौती’ ।
सुदामा जी केवल भाग्य को कोसा करते थे, परंतु इस बार उस साध्वी के सच्चे हृदय से निकली प्रार्थना काम कर गयी । सुदामा जी द्वारकाधीश के पास जाने के लिए तैयार हो गये । उपायन के तौर पर इधर उधर से मांगकर पत्नी ने चावल की पोटली पतिदेव के हवाले की । सुदामा जी पोटली को बगल में दबाये द्वारका के लिए रवाना हुए परंतु बड़े अचंभे की बात यह हुई कि जो द्वारका सुदामा की कुटिया से कोसों दूर थी वह सामने दिखने लगी - उसके सुवर्ण जटित प्रासाद आंखों को चकाचौंध करने लगे । झट से सुदामा जी द्वारका पहुंच गये ।
पूछते - पूछते भगवान के द्वार पहुंचे । द्वारपाल को अपना परिचय दिया । भगवान के दरबार में भला दीन दुखी को कौन रोक सकता है ? द्वारपाल झट से श्रीकृष्ण के पास सुदामा जी के आगमन की सूचना नरोत्तमदास जी के शब्दों में यों देने गया -
भगवान ने अपने पुराने मित्र को पहचान लिया । वे स्वयं आकर सुदामा को महल में ले गये । रत्नजटित सिंहासन पर बैठाया, अपने हाथों से उनका पांव पखारा, प्राचीन विद्यार्थी जीवन की स्मृति दिलायी और भक्ति के साथ लाये हुए भाभी के द्वारा अर्पित चावलों की एक मुट्ठी अपने मुंह में डाली, दूसरी मुट्ठी के समय रुक्मिणी ने उन्हें रोक दिया । सुदामा भगवान के महल में कई दिनों तक सुखपूर्वक रहे, श्रीकृष्ण ने बड़े प्रेम से उन्हें विदा किया ।
सुदामा रास्ते में चले जाते थे और मन ही मन कृष्णा की बद्धमुष्ठिता पर खीझते थे । जब अपने घर पहुंचे तो उन्हें अपनी टूटी मढ़ैया नहीं दिख पड़ी । उसके स्थान पर एक विशालकाय प्रासाद खड़ा पाया । पत्नी ने पति को पहचाना । जब वे महल के भीतर गए तब अपना ऐश्वर्य देख मुग्ध हो गये और भगवान की दानशीलता और भक्तवत्सलता का अवलोकन कर वह अवाक् हो रहे । बहुत दिनों तक अपनी साध्वी पत्नी के साथ सुखपूर्वक दिन बिता अंत में भगवान के चिरंतन सुखमय लोक में चले गये ।
No comments:
Post a Comment