magic

Wednesday, 19 October 2016

फर्श से अर्श तक


अकसर कहा जाता है कि इंसान जब अपनी अंतर्आत्मा की आवाज़ सुनकर कुछ करने की ठान लेता है, तो एक दिन सफलता उसके कदम ज़रूर चूमती है. इस दुनिया में कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता है. यह बात जो भी समझ लेता है, वही सफल हो पाता है. अकसर हम काम को छोटे-बड़े के पैमाने से देखते हैं, मगर सफलता का मूल ही होता है- फर्श से अर्श तक का सफर. चलिए एक ऐसी ही प्रेरणादायी घटना के बारे में हम आपको बताते हैं....

एक समय की बात है दिल्ली में एक मशहूर समोसेवाला था. एक बड़ी कंपनी के गेट के ठीक सामने एक उसकी समोसे की मशहूर दुकान थी. उसके समोसे इतने टेस्टी हुआ करते थे कि कंपनी के बड़े-बड़े बाबू साहब भी लंच टाइम अकसर वहां आकर समोसे खाया करते थे. उनके समोसे की चर्चा चहुंओर फैली थी.

एक दिन कंपनी के मैनेजर समोसेवाले के पास आए. मैनेजर समोसा खाते-खाते समोसे वाले से मज़ाक करने लगे.
मैनेजर साहब ने उससे कहा, 'यार, अपनी दुकान को तुमने तो बहुत अच्छे से मेंटेन कर रखा है. लेकिन क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम अपना समय और टैलेंट समोसे बेचकर बर्बाद कर रहे हो? सोचो, अगर तुम मेरी तरह इस कंपनी में काम कर रहे होते, तो आज कहां होते. हो सकता है शायद तुम भी मेरी तरह ही इस कंपनी के मैनेजर होते.'
इस बात पर उस गरीब समोसेवाले ने थोड़ी देर के लिए चुप्पी साध ली और मुस्कुराते हुए बड़ी खूबसूरती से कहा- 'सर, मुझे लगता है कि मेरा ये काम आपके काम से कहीं ज़्यादा बेहतर है. आप जानते हैं क्यों?'

जहां तक मुझे याद है आज से लगभग 10 साल पहले जब मैं यहीं बैठ कर एक टोकरी में समोसे बेचा करता था, तभी आपकी जॉब लगी थी. तब मैं महीने में मुश्किल से एक हज़ार रुपये कमाता था और उस वक़्त आपकी सैलरी 10 हज़ार थी.
इन 10 सालों में हम दोनों ने खूब मेहनत की और काफ़ी विकसित भी हुए. इन सालों में आप सुपरवाइजर से मैनेजर बन गये और मैं टोकरी वाले से इस इलाके का एक प्रसिद्ध समोसा वाला. आज आप महीने में एक लाख कमा लेते हैं और मैं भी आपके ही जितना कमा लेता हूं. कभी-कभी तो आपसे काफ़ी ज़्यादा ही कमा लेता हूं.
इसलिए मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि मेरा काम आपके काम से काफ़ी बेहतर है और सफल भी. मैं जो भी कर रहा हूं, वो सिर्फ़ अपने लिए नहीं, बल्कि अपने बच्चों के भविष्य के लिए कर रहा हूं. अगर आप नहीं समझ पाये, तो अच्छे से समझ लीजिए...
अब मेरी बातों पर ध्यान दें. जरा सोचिए सर, मैंने तो बहुत कम कमाई पर धंधा शुरू किया था, मगर अब मेरे बेटे को यह सब नहीं झेलना पड़ेगा. मेरे बेटे को वो परेशानी अब नहीं झेलनी पड़ेगी, जो मैंने झेली. मेरी दुकान मेरे बेटे को मिलेगी. मैंने अपनी ज़िंदगी में जो मेहनत की है, उसका लाभ मेरे बच्चे उठाएंगे. उन्हें अब शून्य से शुरूआत करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. उसे पूरी तरह से बना-बनाया व्यवसाय मिलेगा. लेकिन आपके केस में आपके किये का लाभ आपके बच्चों को नहीं, बल्कि आपके बॉस के बच्चों को मिलेगा. आप अपनी इस कुर्सी को अपने बेटे-बेटी को नहीं सौंप सकते. उन्हें भी शून्य से ही अपने करियर की शुरूआत करनी पड़ेगी. जिस तरह से इस पद पर आने के लिए आपको 10 साल तक संघर्ष करना पड़ा, आपके बच्चों को भी ऐसे ही संघर्ष करने पड़ेंगे.

लेकिन मेरा बेटा इस समोसे के बिजनेस को यहां से और आगे ले जाएगा और अपने कार्यकाल में हम सबसे बहुत आगे निकल जाएगा. इसलिए अब आप ही बताइये कि आखिर किसका समय और टैलेंट बर्बाद हो रहा है?
इतना सुनने के बाद मैनेजर साहब ने समोसे वाले को 2 समोसे के 50 रुपये दिये और बिना कुछ बोले वहां से खिसक लिये.
इसलिए जो काम अंदर से आपको खुशी दे और आपके भविष्य को सुरक्षित करे, वही काम करना चाहिए.

Monday, 10 October 2016

RTI_लिखने का तरीका

*_RTI_लिखने का तरीका*

         RTI लिखने का तरीका -
👉🏿RTI मलतब है सूचना का अधिकार - ये कानून हमारे देश में 2005 में लागू हुआ।जिसका उपयोग करके आप सरकार और
किसी भी विभाग से सूचना मांग सकते है। आमतौर पर लोगो को इतना ही पता होता है।परंतु आज मैं आप को इस के बारे में कुछ और रोचक जानकारी देता हूँ -

👉🏿RTI से आप सरकार से कोई भी सवाल पूछकर सूचना ले सकते है।
👉🏿RTI से आप सरकार के किसी भी दस्तावेज़ की जांच कर सकते है।
👉🏿RTI  से आप दस्तावेज़ की प्रमाणित कापी ले सकते है। 
👉🏿RTI से आप सरकारी कामकाज में इस्तेमाल सामग्री का नमूना ले सकते है।
👉🏿RTI से आप किसी भी कामकाज का निरीक्षण कर सकते हैं।
👉🏿RTI में कौन- कौन सी धारा हमारे काम की है।

👉🏿धारा 6 (1) - RTI का आवेदन लिखने का धारा है।
👉🏿धारा 6 (3) - अगर आपका आवेदन गलत विभाग में चला गया है। तो वह विभाग
इस को 6 (3) धारा के अंतर्गत सही विभाग मे 5 दिन के अंदर भेज देगा।
👉🏿धारा 7(5) - इस धारा के अनुसार BPL कार्ड वालों को कोई आरटीआई शुल्क नही देना होता।
👉🏿धारा 7 (6) - इस धारा के अनुसार अगर आरटीआई का जवाब 30 दिन में नहीं आता है
तो सूचना निशुल्क में दी जाएगी।
👉🏿धारा 18 - अगर कोई अधिकारी जवाब नही देता तो उसकी शिकायत सूचना अधिकारी को दी जाए।
👉🏿धारा 8 - इस के अनुसार वो सूचना RTI में नहीं दी जाएगी जो देश की अखंडता और सुरक्षा के लिए खतरा हो या विभाग की आंतरिक जांच को प्रभावित करती हो।
👉🏿धारा 19 (1) - अगर आप
की RTI का जवाब 30 दिन में नहीं आता है।तो इस
धारा के अनुसार आप प्रथम अपील अधिकारी को प्रथम अपील कर सकते हो।
👉🏿धारा 19 (3) - अगर आपकी प्रथम अपील का भी जवाब नही आता है तो आप इस धारा की मदद से 90 दिन के अंदर दूसरी
अपील अधिकारी को अपील कर सकते हो।

👉🏿RTIकैसे लिखे?

इसके लिए आप एक सादा पेपर लें और उसमे 1 इंच की कोने से जगह छोड़े और नीचे दिए गए प्रारूप में अपने RTI लिख लें
...................................

सूचना का अधिकार 2005 की धारा 6(1) और 6(3) के अंतर्गत आवेदन।

सेवा में,

अधिकारी का पद / जनसूचना अधिकारी
विभाग का नाम.............

विषय - RTI Act 2005 के अंतर्गत .................. से संबधित सूचनाऐं।

अपने सवाल यहाँ लिखें।

1-..............................
2-...............................
3-..............................
4-..............................

मैं आवेदन फीस के रूप में 10रू का पोस्टलऑर्डर ........ संख्या अलग से जमा कर रहा /रही हूं।
या
मैं बी.पी.एल. कार्डधारी हूं। इसलिए सभी देय शुल्कों से मुक्त हूं। मेरा बी.पी.एल.कार्ड नं..............है।
यदि मांगी गई सूचना आपके विभाग/कार्यालय से सम्बंधित
नहीं हो तो सूचना का अधिकार अधिनियम,2005 की धारा 6 (3) का संज्ञान लेते हुए मेरा आवेदन सम्बंधित लोकसूचना अधिकारी को पांच दिनों के
समयावधि के अन्तर्गत हस्तान्तरित करें। साथ ही अधिनियम के प्रावधानों के तहत
सूचना उपलब्ध् कराते समय प्रथम अपील अधिकारी का नाम व पता अवश्य बतायें।

भवदीय

नाम:....................
पता:.....................         
फोन नं:..................

हस्ताक्षर...................

ये सब लिखने के बाद अपने हस्ताक्षर कर दें।
👉🏿अब मित्रो केंद्र से सूचना मांगने के लिए आप 10 रु देते है और एक पेपर की कॉपी मांगने के 2 रु देते है। 
👉🏿हर राज्य का RTI शुल्क अगल अलग है जिस का पता आप कर सकते हैं।
👉🏿जनजागृति के लिए जनहित में शेयर करे। 
👉🏿RTI का सदउपयोग करें और भ्रष्टाचारियों की सच्चाई /पोल दुनिया के सामने लाईये

Monday, 26 September 2016

धूप का एक टुकड़ा


कहानी -

धूप का एक टुकड़ा

क्या मैं इस बेंच पर बैठ सकती हूँ? नहीं, आप उठिए नहीं - मेरे लिए यह कोना ही काफी है। आप शायद हैरान होंगे कि मैं दूसरी बेंच पर क्यों नहीं जाती? इतना बड़ा पार्क - चारों तरफ खाली बेंचें - मैं आपके पास ही क्यों धँसना चाहती हूँ? आप बुरा न मानें, तो एक बात कहूँ - जिस बेंच पर आप बैठे हैं, वह मेरी है। जी हाँ, मैं यहाँ रोज बैठती हूँ। नहीं, आप गलत न समझें। इस बेंच पर मेरा कोई नाम नहीं लिखा है। भला म्यूनिसिपैलिटी की बेंचों पर नाम कैसा? लोग आते हैं, घड़ी-दो घड़ी बैठते हैं, और फिर चले जाते हैं। किसी को याद भी नहीं रहता कि फलाँ दिन फलाँ आदमी यहाँ बैठा था। उसके जाने के बाद बेंच पहले की तरह ही खाली हो जाती है। जब कुछ देर बाद कोई नया आगंतुक आ कर उस पर बैठता है, तो उसे पता भी नहीं चलता कि उससे पहले वहाँ कोई स्कूल की बच्ची या अकेली बुढ़िया या नशे में धुत्त जिप्सी बैठा होगा। नहीं जी, नाम वहीं लिखे जाते हैं, जहाँ आदमी टिक कर रहे - तभी घरों के नाम होते हैं, या फिर क़ब्रों के - हालाँकि कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि क़ब्रों पर नाम भी न रहें, तो भी खास अंतर नहीं पड़ता। कोई जीता-जागता आदमी जान-बूझ कर दूसरे की क़ब्र में घुसना पसंद नहीं करेगा!

आप उधर देख रहे हैं - घोड़ा-गाड़ी की तरफ? नहीं, इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। शादी-ब्याह के मौकों पर लोग अब भी घोड़ा-गाड़ी इस्तेमाल करते हैं... मैं तो हर रोज देखती हूँ। इसीलिए मैंने यह बेंच अपने लिए चुनी है। यहाँ बैठ कर आँखें सीधी गिरजे पर जाती हैं - आपको अपनी गर्दन टेढ़ी नहीं करनी पड़ती। बहुत पुराना गिरजा है। इस गिरजे में शादी करवाना बहुत बड़ा गौरव माना जाता है। लोग आठ-दस महीने पहले से अपना नाम दर्ज करवा लेते हैं। वैसे सगाई और शादी के बीच इतना लंबा अंतराल ठीक नहीं। कभी-कभी बीच में मन-मुटाव हो जाता है, और ऐन विवाह के मुहूर्त पर वर-वधू में से कोई भी दिखाई नहीं देता। उन दिनों यह जगह सुनसान पड़ी रहती है। न कोई भीड़ न कोई घोड़ा-गाड़ी। भिखारी भी खाली हाथ लौट जाते हैं। ऐसे ही एक दिन मैंने सामनेवाली बेंच पर एक लड़की को देखा था। अकेली बैठी थी और सूनी आँखों से गिरजे को देख रही थी।

पार्क में यही एक मुश्किल है। इतने खुले में सब अपने-अपने में बंद बैठे रहते हैं। आप किसी के पास जा कर सांत्वना के दो शब्द भी नहीं कह सकते। आप दूसरों को देखते हैं, दूसरे आपको। शायद इससे भी कोई तसल्ली मिलती होगी। यही कारण है, अकेले कमरे में जब तकलीफ दुश्वार हो जाती है, तो अक्सर लोग बाहर चले आते हैं। सड़कों पर। पब्लिक पार्क में। किसी पब में। वहाँ आपको कोई तसल्ली न भी दे, तो भी आपका दुख एक जगह से मुड़ कर दूसरी तरफ करवट ले लेता है। इससे तकलीफ का बोझ कम नहीं होता; लेकिन आप उसे कुली के सामान की तरह एक कंधे से उठा कर दूसरे कंधे पर रख देते हैं। यह क्या कम राहत है? मैं तो ऐसा ही करती हूँ - सुबह से ही अपने कमरे से बाहर निकल आती हूँ। नहीं, नहीं - आप गलत न समझें - मुझे कोई तकलीफ नहीं। मैं धूप की ख़ातिर यहाँ आती हूँ - आपने देखा होगा, सारे पार्क में सिर्फ यही एक बेंच है, जो पेड़ के नीचे नहीं है। इस बेंच पर एक पत्ता भी नहीं झरता - फिर इसका एक बड़ा फायदा यह भी है कि यहाँ से मैं सीधे गिरजे की तरफ देख सकती हूँ -लेकिन यह शायद मैं आपसे पहले ही कह चुकी हूँ।

आप सचमुच सौभाग्यशाली हैं। पहले दिन यहाँ आए - और सामने घोड़ा-गाड़ी! आप देखते रहिए - कुछ ही देर में गिरजे के सामने छोटी-सी भीड़ जमा हो जाएगी। उनमें से ज्यादातर लोग ऐसे होते हैं, जो न वर को जानते हैं, न वधू को। लेकिन एक झलक पाने के लिए घंटों बाहर खड़े रहते हैं। आपके बारे में मुझे मालूम नहीं, लेकिन कुछ चीजों को देखने की उत्सुकता जीवन-भर खत्म नहीं होती। अब देखिए, आप इस पेरेंबुलेटर के आगे बैठे थे। पहली इच्छा यह हुई, झाँक कर भीतर देखूँ, जैसे आपका बच्चा औरों से अलग होगा। अलग होता नहीं। इस उम्र में सारे बच्चे एक जैसे ही होते हैं - मुँह में चूसनी दबाए लेटे रहते हैं। फिर भी जब मैं किसी पेरेंबुलेटर के सामने से गुज़रती हूँ, तो एक बार भीतर झाँकने की जबर्दस्त इच्छा होती है। मुझे यह सोच कर काफी हैरानी होती है कि जो चीजें हमेशा एक जैसी रहती हैं, उनसे ऊबने के बजाय आदमी सबसे ज्यादा उन्हीं को देखना चाहता है, जैसे प्रैम में लेटे बच्चे या नव-विवाहित जोड़े की घोड़ा-गाड़ी या मुर्दों की अर्थी। आपने देखा होगा, ऐसी चीजों के इर्द-गिर्द हमेशा भीड़ जमा हो जाती है। अपना बस हो या न हो, पाँव खुद-ब-खुद उनके पास खिंचे चले आते हैं। मुझे कभी-कभी यह सोच कर बड़ा अचरज होता है कि जो चीजें हमें अपनी ज़िंदगी को पकड़ने में मदद देती हैं, वे चीजें हमारी पकड़ के बाहर हैं। हम न उनके बारे में कुछ सोच सकते हैं, न किसी दूसरे को बता सकते हैं। मैं आपसे पूछती हूँ - क्या आप अपनी जन्म की घड़ी के बारे में कुछ याद कर सकते हैं, या अपनी मौत के बारे में किसी को कुछ बता सकते हैं, या अपने विवाह के अनुभव को हू-ब-हू अपने भीतर दुहरा सकते हैं? आप हँस रहे हैं... नहीं, मेरा मतलब कुछ और था। कौन ऐसा आदमी है, जो अपने विवाह के अनुभव को याद नहीं कर सकता! मैंने सुना है, कुछ ऐसे देश हैं, जहाँ जब तक लोग नशे में धुत्त नहीं हो जाते, तब तक विवाह करने का फैसला नहीं लेते... और बाद में उन्हें उसके बारे में कुछ याद नहीं रहता। नहीं जी, मेरा मतलब ऐसे अनुभव से नहीं था। मेरा मतलब था, क्या आप उस क्षण को याद कर सकते हैं, जब आप एकाएक यह फैसला कर लेते हैं कि आप अलग न रह कर किसी दूसरे के साथ रहेंगे... ज़िंदगी-भर? मेरा मतलब है, क्या आप सही-सही उस बिंदु पर अँगुली रख सकते हैं, जब आप अपने भीतर के अकेलेपन को थोड़ा-सा सरका कर किसी दूसरे को वहाँ आने देते हैं?... जी हाँ... उसी तरह जैसे कुछ देर पहले आपने थोड़ा-सा सरक कर मुझे बेंच पर आने दिया था और अब मैं आपसे ऐसे बातें कर रही हूँ, मानो आपको बरसों से जानती हूँ।

लीजिए, अब दो-चार सिपाही भी गिरजे के सामने खड़े हो गए। अगर इसी तरह भीड़ जमा होती गई, तो आने-जाने का रास्ता भी रुक जाएगा। आज तो खैर धूप निकली है, लेकिन सर्दी के दिनों में भी लोग ठिठुरते हुए खड़े रहते हैं। मैं तो बरसों से यह देखती आ रही हूँ... कभी-कभी तो यह भ्रम होता है कि पंद्रह साल पहले मेरे विवाह के मौके पर जो लोग जमा हुए थे, वही लोग आज भी हैं, वही घोड़ा-गाड़ी, वही इधर-उधर घूमते हुए सिपाही... जैसे इस दौरान कुछ भी नहीं बदला है! जी हाँ - मेरा विवाह भी इसी गिरजे में हुआ था। लेकिन यह मुद्दत पहले की बात है। तब सड़क इतनी चौड़ी नहीं थी कि घोड़ा-गाड़ी सीधे गिरजे के दरवाजे पर आ कर ठहर सके। हमें उसे गली के पिछवाड़े रोक देना पड़ा था... और मैं अपने पिता के साथ पैदल चल कर यहाँ तक आई थी। सड़क के दोनों तरफ लोग खड़े थे और मेरा दिल धुक-धुक कर रहा था कि कहीं सबके सामने मेरा पाँव न फिसल पड़े। पता नहीं, वे लोग अब कहाँ होंगे, जो उस रोज भीड़ में खड़े मुझे देख रहे थे! आप क्या सोचते हैं... अगर उनमें से कोई आज मुझे देखे, तो क्या पहचान सकेगा कि बेंच पर बैठी यह अकेली औरत वही लड़की है, जो सफेद पोशाक में पंद्रह साल पहले गिरजे की तरफ जा रही थी? सच बताइए, क्या पहचान सकेगा? आदमियों की तो बात मैं नहीं जानती, लेकिन मुझे लगता है कि वह घोड़ा मुझे जरूर पहचान लेगा, जो उस दिन हमें खींच कर लाया था... जी हाँ, घोड़ों को देख कर मैं हमेशा हैरान रह जाती हूँ। कभी आपने उनकी आँखों में झाँक कर देखा है? लगता है, जैसे वे किसी बहुत ही आत्मीय चीज से अलग हो गए हैं, लेकिन अभी तक अपने अलगाव के आदी नहीं हो सके हैं। इसीलिए वे आदमियों की दुनिया में सबसे अधिक उदास रहते हैं। किसी चीज का आदी न हो पाना, इससे बड़ा और कोई दुर्भाग्य नहीं। वे लोग जो आखिर तक आदी नहीं हो पाते या तो घोड़ों की तरह उदासीन हो जाते हैं, या मेरी तरह धूप के एक टुकड़े की खोज में एक बेंच से दूसरी बेंच का चक्कर लगाते रहते हैं।

क्या कहा आपने? नहीं, आपने शायद मुझे गलत समझ लिया। मेरे कोई बच्चा नहीं -यह मेरा सौभाग्य है। बच्चा होता, तो शायद मैं कभी अलग नहीं हो पाती। आपने देखा होगा, आदमी और औरत में प्यार न भी रहे, तो भी बच्चे की ख़ातिर एक-दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं। मेरे साथ कभी ऐसी रुकावट नहीं रही। इस लिहाज से मैं बहुत सुखी हूँ -अगर सुख का मतलब है कि हम अपने अकेलेपन को खुद चुन सकें। लेकिन चुनना एक बात है, आदी हो सकना बिल्कुल दूसरी बात। जब शाम को धूप मिटने लगती है, तो मैं अपने कमरे में चली जाती हूँ। लेकिन जाने से पहले मैं कुछ देर उस पब में जरूर बैठती हूँ, जहाँ वह मेरी प्रतीक्षा करता था। जानते हैं, उस पब का नाम? बोनापार्ट - जी हाँ, कहते हैं, जब नेपोलियन पहली बार इस शहर में आया, तो उस पब में बैठा था - लेकिन उन दिनों मुझे इसका कुछ पता नहीं था। जब पहली बार उसने मुझसे कहा कि हम बोनापार्ट के सामने मिलेंगे, तो मैं सारी शाम शहर के दूसरे सिरे पर खड़ी रही, जहाँ नेपोलियन घोड़े पर बैठा है। आपने कभी अपनी पहली डेट इस तरह गुजारी है कि आप सारी शाम पब के सामने खड़े रहें और आपकी मंगेतर पब्लिक-स्टेचू के नीचे! बाद में जो उसका शौक था, वह मेरी आदत बन गई। हम दोनों हर शाम कभी उस जगह जाते, जहाँ मुझे मिलने से पहले वह बैठता था, या उस शहर के उन इलाकों में घूमने निकल जाते, जहाँ मैंने बचपन गुजारा था। यह आपको कुछ अजीब नहीं लगता कि जब हम किसी व्यक्ति को बहुत चाहने लगते हैं, तो न केवल वर्तमान में उसके साथ रहना चाहते हैं, बल्कि उसके अतीत को भी निगलना चाहते हैं, जब वह हमारे साथ नहीं था! हम इतने लालची और ईर्ष्यालु हो जाते हैं कि हमें यह सोचना भी असहनीय लगता है कि कभी ऐसा समय रहा होगा, जब वह हमारे बगैर जीता था, प्यार करता था, सोता-जागता था। फिर अगर कुछ साल उसी एक आदमी के साथ गुजार दें, तो यह कहना भी असंभव हो जाता है कि कौन-सी आदत आपकी अपनी है, कौन-सी आपने दूसरे से चुराई है... जी हाँ, ताश के पत्तों की तरह वे इस तरह आपमें घुल-मिल जाती हैं कि आप किसी एक पत्तों को उठा कर नहीं कह सकते कि यह पत्ता मेरा है, और वह पत्ता उसका।

देखिए, कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि मरने से पहले हममें से हर एक को यह छूट मिलनी चाहिए कि हम अपनी चीर-फाड़ खुद कर सकें। अपने अतीत की तहों को प्याज के छिलकों की तरह एक-एक करके उतारते जाएँ... आपको हैरानी होगी कि सब लोग अपना-अपना हिस्सा लेने आ पहुँचेंगे, माँ-बाप, दोस्त, पति... सारे छिलके दूसरों के, आखिर की सूखी डंठल आपके हाथ में रह जाएगी, जो किसी काम की नहीं, जिसे मृत्यु के बाद जला दिया जाता है, या मिट्टी के नीचे दबा दिया जाता है। देखिए, अक्सर कहा जाता है कि हर आदमी अकेला मरता है। मैं यह नहीं मानती। वह उन सब लोगों के साथ मरता है, जो उसके भीतर थे, जिनसे वह लड़ता था या प्रेम करता था। वह अपने भीतर पूरी एक दुनिया ले कर जाता है। इसीलिए हमें दूसरों के मरने पर जो दुख होता है, वह थोड़ा-बहुत स्वार्थी क़िस्म का दुख है, क्योंकि हमें लगता है कि इसके साथ हमारा एक हिस्सा भी हमेशा के लिए खत्म हो गया है।

अरे देखिए - वह जाग गया। जरा पेरेंबुलेटर हिलाइए, धीरे-धीरे हिलाते जाइए। अपने आप चुप हो जाएगा... मुँह में चूसनी इस तरह दबा कर लेटा है, जैसे छोटा-मोटा सिगार हो! देखिए-कैसे ऊपर बादलों की तरफ टुकुर-टुकुर ताक रहा है! मैं जब छोटी थी, तब लकड़ी ले कर बादलों की तरफ इस तरह घुमाती थी, जैसे वे मेरे इशारों पर ही आकाश में चल रहे हों... आप क्या सोचते हैं? बच्चे इस उम्र में जो कुछ देखते हैं या सुनते हैं, वह क्या बाद में उन्हें याद रहता है? रहता जरूर होगा... कोई आवाज, कोई झलक, या कोई आहट, जिसे बड़े हो कर हम उम्र के जाले में खो देते हैं। लेकिन किसी अनजाने मौके पर, जरा-सा इशारा पाते ही हमें लगता है कि इस आवाज को कहीं हमने सुना है, यह घटना या ऐसी ही कोई घटना पहले कभी हुई है... और फिर उसके साथ-साथ बहुत-सी चीजें अपने आप खुलने लगती हैं, जो हमारे भीतर अरसे से जमा थीं, लेकिन रोजमर्रा की दौड़-धूप में जिनकी तरफ हमारा ध्यान जाता नहीं, लेकिन वे वहाँ हैं, घात लगाए कोने में खड़ी रहती हैं - मौके की तलाश में - और फिर किसी घड़ी सड़क पर चलते हुए या ट्राम की प्रतीक्षा करते हुए या रात को सोने और जागने के बीच वे अचानक आपको पकड़ लेती हैं और तब आप कितना ही हाथ-पाँव क्यों न मारें, कितना ही क्यों न छटपटाएँ, वे आपको छोड़ती नहीं। मेरे साथ एक रात ऐसे ही हुआ था...

हम दोनों सो रहे थे और तब मुझे एक अजीब-सा खटका सुनाई दिया - बिल्कुल वैसे ही, जैसे बचपन में मैं अपने अकेले कमरे में हड़बड़ा कर जाग उठती थी और सहसा यह भ्रम होता था कि दूसरे कमरे में माँ और बाबू नहीं हैं - और मुझे लगता था कि अब मैं उन्हें कभी नहीं देख सकूँगी और तब मैं चीखने लगती थी। लेकिन उस रात मैं चीखी-चिल्लाई नहीं। मैं बिस्तर से उठ कर देहरी तक आई, दरवाजा खोल कर बाहर झाँका, बाहर कोई न था। वापस लौट कर उसकी तरफ देखा। वह दीवार की तरफ मुँह मोड़ कर सो रहा था, जैसे वह हर रात सोता था। उसे कुछ भी सुनाई नहीं दिया था। तब मुझे पता चला कि वह खटका कहीं बाहर नहीं, मेरे भीतर हुआ था। नहीं, मेरे भीतर भी नहीं, अँधेरे में एक चमगादड़ की तरह वह मुझे छूता हुआ निकल गया था - न बाहर, न भीतर, फिर भी चारों तरफ फड़फड़ाता हुआ। मैं पलँग पर आ कर बैठ गई, जहाँ वह लेटा था और धीरे-धीरे उसकी देह को छूने लगी। उसकी देह के उन सब कोनों को छूने लगी, जो एक जमाने में मुझे तसल्ली देते थे। मुझे यह अजीब-सा लगा कि मैं उसे छू रही हूँ और मेरे हाथ खाली-के-खाली वापस लौट आते हैं। बरसों पहले की गूँज, जो उसके अंगों से निकल कर मेरी आत्मा में बस जाती थी, अब कहीं न थी। मैं उसी तरह उसकी देह को टोह रही थी, जैसे कुछ लोग पुराने खंडहरों पर अपने नाम खोजते हैं, जो मुद्दत पहले उन्होंने दीवारों पर लिखे थे। लेकिन मेरा नाम वहाँ कहीं न था। कुछ और निशान थे, जिन्हें मैंने पहले कभी नहीं देखा था; जिनका मुझसे दूर का भी वास्ता न था। मैं रात-भर उसके सिरहाने बैठी रही और मेरे हाथ मुर्दा हो कर उसकी देह पर पड़े रहे... मुझे यह भयानक-सा लगा कि हम दोनों के बीच जो खालीपन आ गया था, वह मैं किसी से नहीं कह सकती। जी हाँ-अपने वकील से भी नहीं, जिन्हें मैं अरसे से जानती थी।

वे समझे, मैं सठिया गई हूँ। कैसा खटका! क्या मेरा पति किसी दूसरी औरत के साथ जाता था? क्या वह मेरे प्रति क्रूर था? जी हाँ... उसने प्रश्नों की झड़ी लगा दी और मैं थी कि एक ईडियट की तरह उनका मुँह ताकती रही। और तब मुझे पहली बार पता चला कि अलग होने के लिए कोर्ट, कचहरी जाना जरूरी नहीं है। अक्सर लोग कहते हैं कि अपना दुख दूसरों के साथ बाँट कर हम हल्के हो जाते हैं। मैं कभी हल्की नहीं होती। नहीं जी, लोग दुख नहीं बाँटते, सिर्फ फ़ैसला करते हैं - कौन दोषी है और कौन निर्दोष... मुश्किल यह है, जो एक व्यक्ति आपकी दुखती रग को सही-सही पहचान सकता है, उसी से हम अलग हो जाते हैं... इसीलिए मैं अपने मुहल्ले को छोड़ कर शहर के इस इलाके में आ गई, यहाँ मुझे कोई नहीं जानता। यहाँ मुझे देख कर कोई यह नहीं कहता कि देखो, यह औरत अपने पति के साथ आठ वर्ष रही और फिर अलग हो गई। पहले जब कोई इस तरह की बात कहता था, तो मैं बीच सड़क पर खड़ी हो जाती थी। इच्छा होती थी, लोगों को पकड़ कर शुरू से आखिर तक सब कुछ बताऊँ... कैसे हम पहली शाम अलग-अलग एक-दूसरे की प्रतीक्षा करते रहे थे - वह पब के सामने, मैं मूर्ति के नीचे। कैसे उसने पहली बार मुझे पेड़ के तने से सटा कर चूमा था, कैसे मैंने पहली बार डरते-डरते उसके बालों को छुआ था। जी हाँ, मुझे यह लगता था कि जब तक मैं उन्हें यह सच नहीं बता दूँगी, तब तक उस रात के बारे में कुछ नहीं कह सकूँगी, जब पहली बार मेरे भीतर खटका हुआ था और बरसों बाद यह इच्छा हुई थी कि मैं दूसरे कमरे में भाग जाऊँ, जहाँ मेरे माँ-बाप सोते थे... लेकिन वह कमरा खाली था। जी, मैंने कहीं पढ़ा था कि बड़े होने का मतलब है कि अगर आप आधी रात को जाग जाएँ और कितना ही क्यों न चीखें-चिल्लाएँ, दूसरे कमरे से कोई नहीं आएगा। वह हमेशा खाली रहेगा। देखिए, उस रात के बाद मैं कितनी बड़ी हो गई हूँ!

लेकिन एक बात मुझे अभी तक समझ में नहीं आती। भूचाल या बमबारी की खबरें अखबारों में छपती हैं। दूसरे दिन सबको पता चल जाता है कि जहाँ बच्चों का स्कूल था, वहाँ खंडहर हैं; जहाँ खंडहर थे, वहाँ उड़ती धूल। लेकिन जब लोगों के साथ ऐसा होता है, तो किसी को कोई खबर नहीं होती... उस रात के बाद दूसरे दिन मैं सारे शहर में अकेली घूमती रही और किसी ने मेरी तरफ देखा भी नहीं... जब मैं पहली बार इस पार्क में आई थी, इसी बेंच पर बैठी थी, जिस पर आप बैठे हैं। और जी हाँ, उस दिन मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि मैं उसी गिरजे के सामने बैठी हूँ, जहाँ मेरा विवाह हुआ था... तब सड़क इतनी चौड़ी नहीं थी कि हमारी घोड़ा-गाड़ी सीधे गिरजे के सामने आ सके। हम दोनों पैदल चल कर यहाँ आए थे...

आप सुन रहे हैं, ओर्गन पर संगीत? देखिए, उन्होंने दरवाजे खोल दिए हैं। संगीत की आवाज यहाँ तक आती है। इसे सुनते ही मुझे पता चल जाता है कि उन्होंने एक-दूसरे को चूमा है, अँगूठियों की अदला-बदली की है। बस, अब थोड़ी-सी देर और है - वे अब बाहर आनेवाले हैं। लोगों में अब इतना चैन कहाँ कि शांति से खड़े रहें, अगर आप जा कर देखना चाहें, तो निश्चिंत हो कर चले जाएँ। मैं तो यहाँ बैठी ही हूँ। आपके बच्चे को देखती रहूँगी। क्या कहा आपने? जी हाँ, शाम होने तक यहीं रहती हूँ। फिर यहाँ सर्दी हो जाती है। दिन-भर मैं यह देखती रहती हूँ कि धूप का टुकड़ा किस बेंच पर है - उसी बेंच पर जा कर बैठ जाती हूँ। पार्क का कोई ऐसा कोना नहीं, जहाँ मैं घड़ी-आधा घड़ी नहीं बैठती। लेकिन यह बेंच मुझे सबसे अच्छी लगती है। एक तो इस पर पत्ते नहीं झरते और दूसरे... अरे, आप जा रहे हैं?                                                                  
                                                                                                         

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